भारत के चुनाव आयोग ने कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा और असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा को ‘कारण बताओ नोटिस’ भेजने में देरी नहीं की। आयोग ने उन रथी यात्राओं को भी रोक दिया है, जिनमें सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को ‘रथ-प्रभारी’ बनने और भारत सरकार की परियोजनाओं का प्रचार करने को बाध्य करने का सर्कुलर तक जारी किया जा चुका था। हालांकि राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने इसी दौरान बयान दिया कि सीबीआई और ईडी ‘कुत्ते की तरह’ घूमती रहती हैं। प्रियंका और हिमंता ने जो सार्वजनिक बयान दिए थे, उनकी तुलना में गहलोत की टिप्पणी घोर आपत्तिजनक है, क्योंकि वह देश की प्रमुख जांच एजेंसियों को कोस रहे थे। जांच एजेंसियां संविधान और कानून के तहत कार्रवाई करती हैं और भारत सरकार के प्रति जवाबदेह हैं। देश में 55 साल से अधिक सालों तक कांग्रेस सत्तारूढ़ रही है। क्या वह भी सीबीआई और ईडी को ‘कुत्ते की तरह’ हांकती थी? चुनाव आयोग ने राजस्थान के मुख्यमंत्री गहलोत को नोटिस भेजकर उनका स्पष्टीकरण नहीं मांगा अथवा अब भी नोटिस की कार्रवाई विचाराधीन है? बहरहाल आयोग ने कांग्रेस और भाजपा के दोनों स्टार नेताओं के बयानों को ‘आदर्श आचार संहिता’ के खिलाफ माना है। प्रियंका ने राजस्थान में जनसभा को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी पर तंज कसा था कि उन्होंने एक मंदिर की दान-पेटी में 21 रुपए ही लिफाफे में रखकर डाले थे। दरअसल ऐसे तंज पर वोट नहीं मिला करते। प्रधानमंत्री का ऐसा सार्वजनिक अपमान चुनावी मुद्दा भी नहीं है और न ही जनता इसे स्वीकार करती है। जिस तरह अन्य राज्यों में विभिन्न राजनीतिक दल अपने-अपने मुद्दों पर जनादेश हासिल करने को प्रचार कर रहे हैं, कांग्रेस महासचिव को भी मुद्दों तक ही सीमित रहना चाहिए था। यह मानसिकता ही ‘सामंतवादी’ है।
असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने भी छत्तीसगढ़ के एक मंत्री पर जो टिप्पणी की थी, वह भी आचार संहिता का उल्लंघन करती थी। हिमंता तो संवैधानिक पद पर आसीन हैं, लिहाजा उनसे शब्दों और भाषा की मर्यादा की अधिक अपेक्षाएं हैं। यकीनन चुनाव आयोग की ‘तुरंत कार्रवाई’ उल्लेखनीय और प्रशंसनीय है, लेकिन 5 दिसंबर को पांच राज्यों में चुनाव-प्रक्रिया समाप्त हो जाएगी। यदि तब तक इन नेताओं के संतोषजनक स्पष्टीकरण आयोग तक नहीं पहुंचते हैं, तो इन नेताओं पर क्या कार्रवाई की जा सकेगी, यह चिंता और सरोकार का सवाल है। शायद इसीलिए कई संदर्भों में चुनाव आयोग को ‘दंतहीन’ माना गया है। चुनाव तो गुजर जाएंगे, नेताओं को जो बयान देने थे, वे दे चुके हैं, लिहाजा सियासत खेली जा चुकी है, लेकिन आचार संहिता के संरक्षण को लेकर आयोग की भूमिका क्या है? हालांकि असम के मुख्यमंत्री ने ‘एक्स’ (ट्विटर) पर लिखकर अपने बयान का स्पष्टीकरण दिया है और छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार को ही ‘दोषी’ करार दिया है। प्रियंका गांधी ने अपना पक्ष रखने के लिए व्हाट्स एप चैनल का इस्तेमाल किया है। सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हुए तीव्र और नाशक बातचीत करना झगड़ालू मुद्दा ही बना रहता है।
संवैधानिक स्पष्टीकरण के लिए सोशल मीडिया कोई उचित मंच नहीं है। उसकी वैधानिकता भी नहीं है। यह ऐसा मंच है, जहां राजनीतिज्ञों का मानना है कि वे आयोग के नोटिस और स्पष्टीकरण को नजरअंदाज कर सकते हैं। दरअसल यह भी दंडनीय होना चाहिए, लिहाजा चुनाव आयोग में सुधारों की बात की जाती रही है। मान लीजिए, किसी भी नेता ने आचार संहिता के खिलाफ कोई आपत्तिजनक बात कही, तो उसे त्वरित कार्रवाई के तहत प्रचार करने और भाषण देने से ‘अयोग्य’ करार दे देना चाहिए। अंतिम निर्णय नोटिस के जवाब के बाद दिया जा सकता है। यह विशेषाधिकार संसद और भारत सरकार ही दे सकती हैं। पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया जारी है, लिहाजा प्रचार का धुआंधार और उग्र होना स्वाभाविक है। उन पर नकेल कसने की भूमिका चुनाव आयोग की है। अभी जो बयान दिए जा रहे हैं और जो भाषण दिए जा रहे हैं, उनमें बहुत कुछ ऐसा है, जो आचार संहिता के खिलाफ और घोर आपत्तिजनक हैं। वे लोकतंत्र पर भी सवाल करते हैं, लिहाजा ऐसी परिस्थितियों और प्रवृत्तियों का सामना करना और उन्हें नियंत्रित करना भी आयोग के लिए चुनौतीपूर्ण है।