दीपावली के अगले दिन ही राजधानी दिल्ली और आसपास के कई इलाकों की हवा फिर ‘जहरीली’ हो गई। कुछ बूंदाबांदी के बाद जो राहत मिली थी, उसे त्योहार की एक रात ने ही स्वाहा कर दिया। दीपावली पर्व, आस्था और मानवीय भावनाओं के कुतर्क देते हुए आधी रात तक खूब पटाखे, बम, आतिशबाजियां जलाए और फोड़े गए। किसी को भी प्रदूषण की चिंता नहीं थी और न ही उसके जानलेवा प्रभावों के प्रति कोई सरोकार है। विषैला परिणाम सामने है कि वायु गुणवत्ता सूचकांक 300 को पार कर गया है। यह ‘बहुत खराब’ श्रेणी का प्रदूषण है, लिहाजा सेहत के लिए गंभीर भी है। वैसे तो यह सूचकांक बीते सप्ताह 400 से अधिक रहा। अब यह सिर्फ पराली जलाने का ही प्रदूषण नहीं है। राजधानी दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में लाखों वाहन नियमित रूप से सडकों पर चलते हैं। निर्माण-कार्य साल भर जारी रहते हैं और उनकी धूल बेहद खतरनाक साबित होती रही है। हालांकि अभी दिल्ली सरकार ने निर्माण-कार्यों पर रोक लगा रखी है। हर गली-मुहल्ले में कचरा जलाया जाता है, लिहाजा उसका धुआं भी जहरीला प्रदूषण पैदा करता है। प्रदूषण में पराली जलाने की करीब 38 फीसदी हिस्सेदारी है। इस साल 15 सितंबर से 10 नवम्बर तक पंजाब में पराली जलाने की कुल 23,620 घटनाएं दर्ज की गईं और हरियाणा में यह आंकड़ा 1676 दर्ज किया गया। दोनों ही राज्यों में बीते 3 सालों की तुलना में पराली जलाने की घटनाएं कम हुई हैं। उसके बावजूद प्रदूषण बढ़ता रहा है। दरअसल हम अपनी आस्थाओं और त्योहारों पर सवालिया नहीं होते।
किस आस्था में विषैले, विस्फोटक पटाखे फोडने की नसीहत दी गई है? कौन-सी आस्था और पर्व मानवीय सेहत के विरोधी रहे हैं? क्या आप जानते हैं कि प्रदूषण से करीब 16.7 लाख मौतें हर साल होती हैं? हर दिन औसतन 4639 मौतें और हर महीने 1.39 लाख मौतें! क्या ये सामान्य आंकड़े हैं? सर्वोच्च अदालत यूं ही फटकार लगाती रहेगी या चेतावनियां जारी करती रहेगी। ऐसे भी कथन सामने आते रहेंगे कि हम आम नागरिक को यूं ही मरते नहीं देख सकते। राजनीतिक दलों, उनके नेताओं और सरकारों पर अदालत की नाराजगी का कोई असर नहीं पड़ता, क्योंकि वे ऐसी ही मिट्टी के बने हैं। अदालतें संबद्ध मंत्री अथवा मुख्यमंत्री को ‘प्रतीकात्मक जेल’ की सजा सुनाएं, तो उनकी आंखें खुल सकती हैं। प्रदूषण के कारण सरकारें स्कूल, दफ्तर, उद्योग आदि बंद करने के आदेश देती रहती हैं। क्या ये कोई समाधान हैं? प्रसंगवश उल्लेख जरूरी है कि ब्रिटेन के लंदन और चीन के बीजिंग शहरों में प्रदूषण एक गंभीर समस्या थी, लेकिन उन्होंने दीर्घकालीन नीतियां बनाईं, ईमानदारी से प्रयास किए, नतीजतन आज वहां का वायु गुणवत्ता सूचकांक औसतन 25-30 रहता है। भारत में ही बेंगलुरू का वायु सूचकांक औसतन 35-40 रहता है। राजधानी दिल्ली के इलाकों में ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता? नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद ने एक साक्षात्कार के दौरान समाधान सुझाया था कि पराली और फसल के शेष अवशेषों का एक बाजार पैदा किया जा सकता है। फसलों की मशीन से कटाई के बाद खेतों में जो चारा या ठूंठ बचता है अथवा पराली रह जाती है, उसके लिए कुछ बाजार है और आगे भी उसका विधिवत विस्तार किया जा सकता है। जो पौधे कम्प्रेस्ड बॉयोगैस, एथनोल आदि पैदा करते हैं, गन्ने का कचरा, कपास के डंठल, मकई के भुट्टे रह जाते हैं, उन्हें भी एक निश्चित बाजार में शामिल किया जा सकता है। घास-भूसे की मांग बढ़ेगी, तो पराली जलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।