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मायावती का ‘अलग राज्य’

बसपा प्रमुख मायावती ने चुनाव प्रचार के दौरान पश्चिमी उप्र को एक अलग, स्वायत्त राज्य बनाने का मुद्दा उछाला है। जब मायावती 2007-12 के दौरान उप्र की मुख्यमंत्री थीं, तब भी वह इस मुद्दे पर मुखर थीं। देश के पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह और उनके बाद भी इसी भूक्षेत्र को ‘हरित प्रदेश’ नामक राज्य बनाने को आंदोलन और अभियान छेड़े गए थे। ‘हरित प्रदेश’ राष्ट्रीय लोकदल के महत्वपूर्ण मुद्दों में एक था। चूंकि पश्चिमी उप्र जाट, किसान, गुर्जर बहुल आबादी का क्षेत्र है, जिनका बुनियादी पेशा कृषि है, लिहाजा ‘हरित प्रदेश’ नाम देने की बार-बार बात कही गई, लेकिन अब मायावती ने जो मुद्दा उठाया है, उसकी भावुकता ‘हरित प्रदेश’ से न जुड़ कर राजनीतिक और चुनावी अधिक है। बसपा को आम चुनाव, 2024 में कोई बड़ा फायदा मिलेगा, ऐसे आसार नहीं हैं, क्योंकि मायावती राजनीतिक तौर पर उतनी सक्रिय भी नहीं हैं। किसी भूखंड, क्षेत्र का पुनर्गठन कर नया, अलग राज्य बनाना आसान नहीं है। अलग राज्य के लिए संस्कृति, भाषा और जन-आंदोलन का होना बेहद अनिवार्य है। भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का सिलसिला 1953 में शुरू हुआ, जब आंध्रप्रदेश को प्रथम भाषायी राज्य बनाने की प्रक्रिया आरंभ की गई। तत्कालीन मैसूर राज्य और मद्रास राज्य के हिस्सों को अलग कर ‘आंध्रप्रदेश’ नए राज्य का पुनर्गठन किया गया। 2013-14 में आंध्रप्रदेश का विभाजन किया गया और ‘तेलंगाना’ नया, अलग राज्य बनाया गया। राज्य पुनर्गठन आयोग भारत सरकार का एक संस्थान है, जो नया, अलग राज्य बनाने की प्रक्रिया सम्पन्न करता है। आयोग राज्यों के विभिन्न विवादों का भी निपटान करता है।
अलग राज्य बनाने के पीछे राजनीतिक समर्थन ही पर्याप्त नहीं, एक स्वतंत्र प्रशासनिक ईकाई स्थापित करना ही मकसद नहीं, बल्कि भाषा और संस्कृति अहम कारक होते हैं। आंध्रप्रदेश को भाषायी आधार पर अलग राज्य बनाने के बाद ही समस्याओं का समाधान नहीं हुआ। राज्य पुनर्गठन आयोग ने इसी मुद्दे का व्यापक अध्ययन किया और 1955 में निष्कर्ष दिया कि अलग राज्य बनाने के लिए भाषायी ही सबसे सशक्त आधार है। राज्य सिर्फ एक प्रशासनिक ईकाई, एक अलग, स्वतंत्र सरकार ही नहीं है, वहां लोकतांत्रिक संस्थानों की प्रक्रिया और कार्यप्रणाली भी भावनात्मक हो। भाषा इस संदर्भ में इसका माकूल जवाब हो सकती है। प्रशासन के प्रभावों का भी सवाल है। कभी प्रभावशीलता प्रशासनिक ईकाई के आकार से भी तय होती है। करीब अढाई दशक पहले ‘हरित प्रदेश’ रालोद का सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा था। आज नहीं है। इसी दौर में भाषायी आधार और क्षेत्रीय इतिहास, संस्कृति के आधार पर अलग राज्यों की मांगें मुखर होने लगीं। नतीजतन झारखंड, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ राज्य बनाए गए। उनके मूल राज्य-बिहार, उप्र और मध्यप्रदेश इतने विशाल राज्य थे कि विभाजन होने के बावजूद कुछ और अलग राज्यों की मांगें गूंजती रहती हैं। आवास और शहरी मामलों की संसदीय कमेटी की एक रपट में अनुमान लगाया गया था कि राष्ट्रीय जीडीपी में शहरी भारत की हिस्सेदारी 65 फीसदी है, लिहाजा शहरी प्रभुत्व राज्य में राजनीतिक आयामों और गतिशीलता को बदल सकता है। राज्य सरकार को जो टैक्स मिलता है, उस पर भी स्वायत्त नियंत्रण इसी वर्चस्व से तय होगा। पश्चिमी उप्र का मुद्दा अपेक्षाकृत आर्थिक रूप से कमजोर क्षेत्र का होगा।
तेलंगाना भी खेती वाला क्षेत्र था, जिसके अपने आर्थिक मतभेद थे। आंध्रप्रदेश से आज भी ऐसे कई मतभेद सुलझ नहीं पाए हैं, लेकिन हैदराबाद पर तेलंगाना का नियंत्रण है, यह काफी महत्वपूर्ण है। 2021-22 में तेलंगाना ने अपना करीब 79 फीसदी राजस्व अपने कर-संग्रह से ही प्राप्त किया, जबकि आंध्रप्रदेश को ऐसा 50 फीसदी राजस्व ही मिल सका। मायावती के मुद्दे पर गौर करें, तो सबसे पहले राज्य पुनर्गठन आयोग इस पर कैसे विचार करेगा? केंद्रीय कैबिनेट का विचार क्या होगा? सबसे महत्वपूर्ण है कि उप्र की कैबिनेट और विधानसभा का विचार क्या रहता है? बेशक सामाजिक और सांस्कृतिक कारक किसी भी राज्य के पुनर्गठन के बुनियादी आधार होते हैं, लेकिन आर्थिक पक्ष बहुत जरूरी है। खासकर भारत की अर्थव्यवस्था जिस तरह बदल रही है, उसके मद्देनजर दो राज्य आर्थिक संसाधनों पर सहमत कैसे होते हैं, यह निर्णय होने के बाद ही नया, अलग राज्य आकार ग्रहण करेगा।

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